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Friday, 3 March 2023

[New post] न्यायाधीशों का सुपरसेशन और कॉलेजियम का जन्म: कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच का तनाव

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न्यायाधीशों का सुपरसेशन और कॉलेजियम का जन्म: कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच का तनाव

jilsblognujs

Mar 3

By Udit Choudhary

 
 

(This blog is the second in the series of blogs that JILS will publish in various vernacular languages as part of its initiative to mark the International Mother Language Day. )

 

24 अप्रैल 1973 को भारत में दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटी। पहली यह कि उस दिन खेल की दुनिया में क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर ने भारत में जन्म लिया और दूसरा कानून की दुनिया में भारत के सुप्रीम कोर्ट में बेहद अहम निर्णय सुनाया गया जो था केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार।[1]

जहां शंकरी प्रसाद[2] और सज्जन सिंह[3] के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह ठहराया था कि संसद मौलिक अधिकारों सहित संविधान के हर हिस्से में संशोधन करने के लिए सशक्त है तो वहीं इसके विपरीत 1967 में गोलकनाथ[4] में सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया कि संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति, संविधान के मौलिक अधिकारों में संशोधन करने तक नहीं जाती। इस संसद और न्यायपालिका के बीच के तनाव को विराम देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 24 अप्रैल 1973 को केशवानंद भारती[5] फैसला सुनाया जिसमें कोर्ट ने संसद और न्यायपालिका की शक्तियों के बीच संतुलन बनाते हुए निर्धारित किया कि संसद, मौलिक अधिकारों सहित पूरे संविधान में संशोधन करने के लिए सशक्त है लेकिन इन संशोधनों द्वारा संसद, संविधान के आधारभूत संरचना को क्षति नहीं पहुंचा सकती।

इस फैसले के बाद से 24 अप्रैल को भारत की न्याय व्यवस्था में एक महान दिन के रूप में जाना जाने लगा वही उसके अगले दिन यानी 25 अप्रैल 1973 को कुछ ऐसा हुआ जो भारत की न्याय व्यवस्था के लिए एक काले दिन के रूप में देखा जाता है। उस समय के मुख्य न्यायाधीश एस.एम सीकरी को  25 अप्रैल 1973 को सेवानिवृत्त होना था और उनकी जगह संवैधानिक परंपरा के मद्देनजर अगले वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस शेलत को भारत का नया मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाना चाहिए था और उसी परंपरा का पालन करते हुए जस्टिस सीकरी ने अगले मुख्य न्यायाधीश के रूप में सरकार को जस्टिस शेलत के नाम का सुझाव दिया। लेकिन सरकार ने जस्टिस शेलत और उनके बाद के दो वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस ग्रोवर और जस्टिस हेगड़े को छोड़ते हुए और संवैधानिक परंपराओं की धज्जियां उड़ाते हुए जस्टिस ए. एन रे को भारत का नया मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया। यहां गौर करने वाली बात यह है कि केशवानंद भारती जजमेंट में जस्टिस शेलत, ग्रोवर और हेगड़े ने सरकार के खिलाफ जाते हुए संविधान के आधारभूत ढांचे की नींव रखी और वहीं जस्टिस ए.एन रे अल्पमत वाले न्यायाधीशों में शामिल रहे। इस प्रकार भारत में पहली बार सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का सुपरसेशन किया गया और साथ ही न्यायपालिका और विधायिका के तनाव ने कार्यपालिका और न्यायपालिका के तनाव का एक नया मोड़ ले लिया। इस घटना के बाद जस्टिस शेलत, ग्रोवर और हेगड़े ने अपना विरोध दर्ज करते हुए न्यायाधीश के पद से इस्तीफा दे दिया।[6] आजाद भारत के संवैधानिक इतिहास में इस सुपरसेशन को कार्यपालिका द्वारा न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर पहले बड़े और खुले हमले के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन यह सुपरसेशन भारत में न्यायाधीशों का पहला और आखिरी सुपरसेशन नहीं था क्योंकि जो कीमत जस्टिस शेलत, ग्रोवर और हेगड़े ने केशवानंद भारती निर्णय में सरकार के खिलाफ जाने की चुकाई, वही कीमत 1977 में जस्टिस एच.आर खन्ना ने केशवानंद भारती और ए.डी.एम जबलपुर केस[7] में सरकार के विरुद्ध जाने की अदा की। पहले और दूसरे सुपरसेशन में एक अंतर यह भी है कि पहले सुपरसेशन में सरकार ने जस्टिस एस. एम सीकरी के सुझाव के विरुद्ध जाकर जस्टिस ए.एन रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जबकि दूसरे सुपरसेशन में मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे ने खुद सरकार को दिए सुझाव में जस्टिस खन्ना का नाम नहीं दिया था।[8]  भारत में न्यायाधीशों का कार्यपालिका द्वारा सुपरसेशन की कोशिश के अंश, संविधान के शुरुआती दिनों में भी देखने को मिलते हैं। भारत के पहले मुख्य न्यायाधीश कनिया के निधन के बाद भी सरकार न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री ,उस समय उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश,  को नए मुख्य न्यायाधीश के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीशों द्वारा एक साथ त्यागपत्र देने की धमकी के बाद सरकार को अपने कदम पीछे लेने पड़े।[9] उच्चत्तम न्यायालय के न्यायाधीशों में इस तरह का बंधुत्व 1973 और 1977 में देखने को नहीं मिला।

1978 में इंदिरा गांधी की सरकार बदलने के पश्चात इस विषय पर लॉ कमीशन ने चर्चा की और यह सुझाव दिया कि मुख्य न्यायाधीश के सेवानिवृत्त होने पर अगले वरिष्ठतम न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करने की परंपरा को सरकारों द्वारा माना जाना चाहिए।[10]

सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण को लेकर पहला मामला सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस सेठ के गुजरात हाईकोर्ट से आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट में स्थानांतरण होने पर आया जिसकी याचिका सरकार द्वारा ट्रांसफर वापस लेने पर निरस्त कर दी गई।[11]

दूसरी बार न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जो केस आया उसे हम फर्स्ट जजेस केस[12] के नाम से जानते हैं। इस केस में भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता को संविधान के आधारभूत ढांचे का हिस्सा बताया गया और न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश और कार्यपालिका के बीच एक प्रभावी परामर्श की बात कही गई लेकिन बहुमत ने यह मानने से संकोच किया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश की राय कार्यपालिका के निर्णय पर प्रचलित प्रभाव रखती है। बहुमत के इस विचार पर विधि विशेषज्ञों द्वारा अपने-अपने तरीकों से नाराजगी जताई गई।

एस.पी गुप्ता केस के असंतोष ने 1993 के सेकंड जजेस [13] केस को जन्म दिया जहां से कॉलेजियम, जिसका जिक्र फर्स्ट जजेस केस में भी हुआ था, को प्रभाव में लाया गया और इसी के साथ कॉलेजियम की व्यवस्था का भारत में जन्म हुआ।

तीसरी बार सुप्रीम कोर्ट में यह मामला थर्ड जजेस [14] केस में उठाया गया जहां सिर्फ कॉलेजियम में वरिष्ठतम  न्यायाधीशों की संख्या को 3 से 5 कर दिया गया।

2014 में मोदी सरकार ने NJAC Act[15]  लाकर एक बार फिर से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्तियों की प्रक्रिया को चर्चा में ला दिया लेकिन एन.जे.ए.सी कानून को सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर खतरा मानते हुए असंवैधानिक घोषित कर दिया।[16]

निश्चित तौर पर कॉलेजियम और उसके द्वारा पालन की जाने वाली प्रक्रिया पर बड़े सवाल है क्योंकि कॉलेजियम अपने आप में दुनिया की एकमात्र व्यवस्था है जहां न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीशों के द्वारा ही की जाती है। साथ ही कोलोजियम द्वारा नियुक्ति की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी है। इस पर सहमति जताई जा सकती है कि कॉलेजियम सिस्टम को प्रतिस्थापित करने या कम से कम उसमें सुधार करने की अति आवश्यकता है।

दार्शनिक थॉमस पेन ने कहा था कि राज्य में समाज आशीर्वाद है, जबकि राज्य समाज की अनिवार्य व्यवस्था है।[17] यह सच है कि राज्य की शक्तियां नागरिक के लिए खतरा बन सकती है। राज्य के तीनों हिस्से: कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका- नागरिक के लिए कभी भी खतरा बन सकती है लेकिन इन तीनों में मुझे न्यायपालिका सबसे कम संकटपूर्ण लगती है लेकिन यह भी सच है कि राज्य का यह वह हिस्सा है जो नागरिक को सबसे अधिक क्षति पहुंचाने की क्षमता रखता है।

हाल में फिर से न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर राजनीति गर्म है और ऐसे में अगर सरकार सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण को लेकर कोई नया कानून पेश करती हैं तो वह हैरत की बात नहीं होगी।

 

The author, Udit Choudhary, is an LLM student at the West Bengal National University of Juridical Sciences (NUJS), Kolkata.

 

We would like to extend our special thanks and gratitude to Aditi Singh, a fifth-year law student at the West Bengal National University of Juridical Sciences (NUJS), Kolkata, for assisting us with her review and inputs.

 

[1] Keshavnanda Bharti v. State of Kerala, AIR 1973 SC 1461.

[2] Shankari Prasad v. Union of India, AIR 1951 SC 458.

[3] Sajjan Singh v. State of Rajasthan, AIR 1965 SC 845.

[4] Golaknath v. State of Punjab, AIR 1967 SC 1643.

[5] Supra note 1.

[6] Zia Mody, 10 Judgements That changed India 20 (2013).

[7] ADM Jabalpur v. Shivkant Shukla, AIR 1976 SC 1207

[8] Fali S. Nariman, Before the memory fades 338 (2010).

[9] Law Commission of India, One Hundred Twenty-First Report on A New Forum for Judicial Appointments, Report No. 121, (July 1987).

[10] See Law Commission of India, Method of Appointment of Judges, Report No. 80, (1979).

[11] Union of India v. S.H Seth, AIR 1977 SC 2328.

[12] S.P Gupta v. Union of India, 1981 Supp (1) SCC 87.

[13] Supreme Court Advocates-on-record Association v. Union of India, 1993 (4) SCC 441.

[14] Special Reference No. 1, 1998 (7) SCC 739.

[15] The Constitution(Ninety Nine Amendment) Act, 2014.

[16] Supreme Court Advocates-on-record Association Union of India, 2015 (4) SCC 1.

[17] Thomas Paine, Common sense 47 (1776).

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