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Sunday, 9 October 2022

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पर्दाफाश

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Oct 9

एक कहानी

For English version, please see my next post

लखन सिंह (लक्खू) बिहार के अररिया जिले के बैरगाछी गांव का एक पच्चीस वर्षीय, सीधा-सादा, परास्नातक और सबसे शिक्षित युवक था, लेकिन बेरोजगार। प्रतियोगिता परीक्षाओं में वह कई बार बैठा, पर सफलता कोसों दूर थी। दो बार बैंक की लिखित परीक्षा में पास भी हुआ, किन्तु साक्षात्कार में फेल हो गया। गांव वाले भी दबी आवाज से उसके बारे में ऊटपटांग बातें करने लगे थे। कभी कभी उसका मन ग्लानि से भर जाता था,
"क्या इसी दिन के लिए मेरे पिता ने सारे खेत बेचे थे?"

परिवार के भरण पोषण के लिए पिता का खेतिहर मजदूर के रूप में काम करना उसे अच्छा नहीं लगता था। उसे शर्मिंदगी महसूस होती थी अपने निकम्मापन पर भी। कभी कभी लगता कि पिता की जगह उसे खुद मजदूरी करनी चाहिए। पर दूसरे ही क्षण उसे एहसास होता,
"इतना पढ़ने लिखने के बाद मजदूरी का काम? लोग क्या कहेंगे?"

लक्खू को लगा मानों उसकी पढ़ाई लिखाई के बाद
सारे दरवाजे बंद हो गए हों। पर सारे दरवाज़े कभी बंद नहीं होते, बस हताशा में हमें दिखते नहीं। लक्खू को भी अंततः एक छोटा दरवाजा दिख गया ट्यूशन का।

और लक्खू ने ट्यूशन पढ़ाने का काम शुरु किया। उसने शुरुआत की अपने ही गांव के कुछ छोटे बच्चों से। लेकिन उन छोटे बच्चों को पढ़ाना उसे कठिन लग रहा था। उसे उनकी किताबों को पढ़ना पड़ता था, मानों वह मिडिल स्कूल का छात्र हो, जबकि उसने पीएमसी (भौतिकी, गणित और रसायन) के साथ स्नातक और गणित में परास्नातक किया था।

एक दिन गांव के सरपंच ने उसे बुला कर बोला, "अररिया में मेरे एक मित्र हैं रामाधार सिंह। उन्हें अपने बेटों के लिए साइंस के एक ट्यूटर की जरूरत है। जाकर मिल लो। पैसा अच्छा मिलेगा।"

सरपंच का यह कथन आदेश था लक्खू के लिए।अररिया शहर उसके गांव से मात्र नौ किलोमीटर दूर स्थित था। वह तैयार हो गया रामाधार जी के तीनों बेटों को पढ़ाने के लिए। वहां कुछ और संपर्क बढ़ा और वह पांच घरों में ट्यूशन पढ़ाने लगा। दो ऐसे छात्र भी उसे मिले, जो जैविकी भी पढ़ना चाहते थे। उसने हां कर दी, क्योंकि उसे पैसों की जरूरत थी। वह उनके किताबों को पहले पढ़ता, समझता और फिर पढ़ाता। लक्खू कठिन परिश्रम कर रहा था, किंतु ट्यूशन से जितना पैसा वह कमा पा रहा था, उससे पूरे घर का बोझ उठाना संभव नहीं था।

वह हाथ पांव मारता रहा। उसी क्रम में अररिया स्थित एक कोचिंग इंस्टीट्यूट से उसने संपर्क किया। संयोग से उन्हें गणित के एक शिक्षक की जरूरत थी। वेतन भी आकर्षक था, घर घर ट्यूशन पढ़ाने की तुलना में। तीन घरों को उसे छोड़ना पड़ा, लेकिन दो घरों में पढ़ाना जारी रखा, इंस्टिट्यूट के साथ साथ। धीरे धीरे गणित और विज्ञान के एक अच्छे शिक्षक के रूप में उसकी ख्याति बढ़ने लगी थी। उसे दरवाजे के आगे भी कुछ रोशनी दिखाई देने लगी थी, भले ही कुछ दूर सही।

अररिया से लगभग चालीस किलोमीटर दूर है पूर्णिया, सीमांचल का सर्वप्रमुख शहर। वहां के एक प्रतिष्ठित कोचिंग इंस्टीट्यूट से लक्खू को एक प्रस्ताव मिला, दूने वेतन पर। उसने तुरंत बोरिया बिस्तर उठाया और चल पड़ा पूर्णिया की ओर। इंस्टीट्यूट के पास ही एक कमरा किराए से लिया और वहीं रहने लगा तन्मयता से पढ़ने और पढ़ाने के लिए। कैसी विडंबना थी कि जिन प्रतियोगी परीक्षाओं में उसे स्वयं सफलता नहीं मिली, उन्हीं के लिए अब वह मार्गदर्शन करने लगा था।

जिंदगी कुछ कुछ पटरी पर आने सी लगी थी।
लेकिन सप्ताहांत में लक्खू पूर्णिया से बैरगाछी जरूर जाता था और हर बार चुलबुली लक्ष्मी जरूर मिल जाती, उसकी छोटी बहनों से मिलने के बहाने। लक्खू चाहता तो था उसे, लेकिन अपने मन की बात कभी कर नहीं पाता था। उसे अपने बहनों की शादी की चिंता जो सता रही थी।

तभी एक दिन कोचिंग इंस्टीट्यूट में उसे एक अत्यंत आकर्षक प्रस्ताव मिला, एक साथी ट्यूटर, श्यामकुंवर से। उसने लक्खू को घर बुलाया और बिना ज्यादा लाग लपेट के बोला,
"किसी अभ्यर्थी की जगह क्या तुम परीक्षा दे सकते हो?"
"आपका क्या तात्पर्य है?" हतप्रभ हो लक्खू ने पूछा।
श्यामकुंवर ने फिर विस्तार में उसे समझाया,
"प्रत्युष को जानते हो न। तुमने उसे पढ़ाया भी है। वह मधेपुरा से यहां आकर बैंक परीक्षा की तैयारी कर रहा है, पर कई बार फेल हो चुका है। उसके पिता मुझसे मिले थे। तुम उनके बेटे की उम्र के ही हो, डील डौल में भी कोई ज्यादा अंतर नहीं है। तुम प्रत्युष का एडमिट कार्ड लेकर परीक्षा कक्ष में चले जाना, जहां जहां जरूरी हो, प्रत्युष के रूप में हस्ताक्षर कर देना। उसके हस्ताक्षर की थोड़ी प्रैक्टिस करनी होगी।"
"लेकिन इसमें तो बहुत खतरा है", लक्खू तुरंत बोल पड़ा।
"खतरा है तो लाभ भी है। तुमको इस काम के लिए पच्चीस हजार रुपए मिलेंगे, और लिखित परीक्षा में पास होने पर दूना, यानी पचास हजार रूपए। और हां, बीस प्रतिशत निदेशक का। सोच विचार कर लो। याद रखना, No risk, no reward."

श्यामकुंवर के इस उत्तर पर वह निरुत्तर हो गया। वह "ना" नहीं कर सका। उसने मन ही मन सोचा, "खुद तो पास नहीं हो पाया। दूसरे को पास करा के देखते हैं। इस अनुभव के बाद फिर वह खुद भी पास हो जायेगा। इसी बहाने अच्छे पैसे भी मिल जाएंगे।"

प्रस्ताव आकर्षक अवश्य था, लेकिन प्रवंचनशील और अवैधानिक भी। लेकिन लक्खू को श्यामकुंवर ने आश्वस्त कर दिया, "मधेपुरा के सभी विद्यालयों में निदेशक की सेटिंग है। कोई शिक्षक नहीं पकड़ेगा। यह पहला प्रकरण तो है नहीं।"
उसका हौसला और भी बढ़ गया, जब श्यामकुंवर ने बताया कि वह भी ऐसा कई बार कर चुका है।

परीक्षा खत्म हुई और उसके हाथ में पच्चीस हजार रुपए आ गए। उसमें से पूरे बीस हजार उसके थे। उसे बड़ा अच्छा लगा और यह सिलसिला चल पड़ा। लक्खू की खुशियां बढ़ती गई। अनायास ही लक्ष्मी याद आने लगी थी। मन ही मन शादी के लड्डू फ़ूटने लगे थे। बहनों के रिश्ते की बात भी चलने लगी थी। तभी एक अनहोनी हो गई। एक परीक्षा के दौरान उसका छद्म रूप सामने आ गया। बात बिगड़ गई। वह रंगे हाथों पकड़ा गया और उसे डेढ़ साल की सजा हो गई।

लक्खू के पश्चाताप की कोई सीमा नहीं थी। क्या सोचा था और क्या हो गया! समाज में उसकी और उसके परिवार की नाक कट गई। चौबे गए थे छब्बे बनने, पर दुबे भी नहीं बने, सीधे डूब ही गए। घर वालों की मनः स्थिति के बारे में सोचते हुए वह अक्सर रो पड़ता था।

एक दिन उसे रोते हुए राजेंद्र ने देख लिया, जो एक अन्य मामले में उसी जेल में सजा भुगत रहा था, लेकिन उसे इस प्रकरण की जानकारी थी। उसे लक्खू से सहानुभूति हो गई। एक दिन राजेंद्र ने उसे फुर्सत में समझाया,
"मधेपुरा में मेरे सेठ रहते हैं। उन्हें तुम्हारी तरह एक होशियार पढ़े लिखे व्यक्ति की ज़रूरत है। जेल से छूट कर तुम उनसे मिलना। तुम्हारा काम बन जायेगा। ट्यूशन तो अब तुम पढ़ा नहीं पाओगे। इतनी बदनामी के बाद तुमसे कौन ट्यूशन पढ़ेगा? लेकिन कुछ न कुछ तो करना पड़ेगा अपने और अपने परिवार के भरण पोषण के लिए।"

राजेंद्र की बातें लक्खू को अच्छी लगी कि जेल से बाहर आने के बाद वह बेकार नहीं बैठेगा। परंतु मन ही मन उसे संदेह हो रहा था कि कहीं यह भी एक छलावा तो नहीं। आखिर राजेंद्र के खिलाफ भी चार सौ बीसी का मुकदमा चल रहा था। दूध का जला छाछ भी फूंक कर पीता है, बात सही है, लेकिन सामने कुछ और ना हो, तो क्या विकल्प है, सिवाय एक बार फिर चांस लेने का?

वह घर वापस किस मुंह से जाता? जेल से छूट कर वह बैरगाछी न जाकर सीधे मधेपुरा पहुंच गया राजेंद्र के सेठ दुलीचंद के पास। कुछ दिन वह सेठ के एक गोदाम में रहा और काम समझता रहा। सेठ का किराने का एक दूकान था। लक्खू को मुख्यतः मुनीम का काम करना था। काम ज्यादा नहीं था, पर वेतन अच्छा था। उसने एक कमरा किराए से लिया और अपने आप को व्यवस्थित करने लगा।

लक्खू की सूझ बूझ से प्रभावित होकर सेठ दुलीचंद ने उसे बैंक का काम सुपुर्द किया। यह काम टेढ़ा था। किराने की दुकान के खाते में नकद जमा करना होता था, ताकि माल मुहैया करने वालों को चेक से भुगतान किया जा सके। एक दूसरे खाते में चेक जमा करना होता था और नकद भुगतान लेना होता था। यह दूसरा खाता सेठ के भतीजे के नाम से था, लेकिन लेन देन सेठ खुद करते थे, क्योंकि भतीजा विदेश में था।

जो भी चेक सेठ देते थे, उसे लक्खू दूसरे खाते में जमा करने के लिए क्लियरिंग में लगाता और दो दिनों के बाद नकद भुगतान लेकर सेठ को दे देता। एक दिन वह नकद भुगतान ले ही रहा था कि शाखा प्रबंधक के कैबिन से दो पुलिस वाले निकल कर आएं और उसे दबोच लिएं। धोखाधड़ी का मुकदमा लगा और एक बार फिर वह सलाखों के अंदर था।

लक्खू पर आरोप यह लगा कि वह बैंक में फर्जी चेक लगा कर एक बेनामी खाते से भुगतान ले रहा था। कई बैंकों ने पुलिस थाने में शिकायत की थी कि चुराए गए चेकों का भुगतान लिया जा रहा था एक बैंक शाखा से। लक्खू सकते में था। अपने ऊपर लगे आरोपों से वह पूर्णतः अनभिज्ञ था। लेकिन यह बात उसे समझने में देर न लगी कि सेठ दुलीचंद ने उसे फंसाया था, क्योंकि भतीजे के नाम वाला खाता दरअसल बेनामी था।

लक्खू टूट गया अंदर से। जेल में न किसी से मिलता न कुछ बोलता, बस अपने कर्मो और भाग्य को दोष देता रहता,
"क्या यही मेरी नियति है? कोई भी कैसे भी मुझे पप्पू बना देता है। क्या मैं इतना नासमझ और नक्कारा हूं? दो बार के सजायाफ्ता को कोई नौकरी देगा भी तो क्यों? क्या मैं अपने परिवार और इस धरती पर बोझ नहीं बन गया हूं?"

सारे रास्ते बंद हो चुके थे। वह करे भी तो क्या करे? अवसाद की इस स्थिति में एक दिन उसने खुदकुशी करने की ठान ली। उसकी आंखों के सामने बस एक बंद दरवाजा ही दिख रहा था। पंखा था नही। एक पीपल का पेड़ था, वह जब भी उस पर चढ़ने की सोचता कि जेल का बड़ा दरवाजा दिख जाता था।

अचानक उसके दिमाग में फ्लैशलाइट की तरह एक बात कौंधी,
"बंद दरवाजा अगर नहीं खुलता है, तो क्यों न उसे तोड़ दिया जाए? खुदकुशी तो अकर्मण्यता है। जिन्होंने मुझे इस हाल तक पहुंचाया है, उन्हें इस तरह समाज में अपराध करते रहने की खुली छूट देना कायरता है, अनैतिक है, और उस अपराध में सहभागी बनने जैसा है।"
उसने दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब 'याचना नही, रण होगा।'

दो साल बाद जब लक्खू जेल के बाहर आया, तो सबसे पहले फिर सेठ दुलीचंद के पास गया। इस बार राजेंद्र भी वहीं मिल गया। लक्खू ने काम मांगा, सेठ तैयार भी हो गया, लेकिन इस बार उसे किराने का दूकान चलाने को बोला गया। बैंक का काम राजेंद्र करने लगा था एक नया बेनामी खाता खोलकर। लक्खू ने राजेंद्र को विश्वास में लिया और गोरखधंधे का पता करने में लग गया। कुछ दिनों बाद लक्खू पुलिस स्टेशन पहुंच गया, लेकिन इस बार वह प्राथमिकी लिखाने गया था सेठ दुलीचंद के विरुद्ध।

लक्खू ने पुलिस को बताया कि किस तरह सेठ दुलीचंद ने एक डाकिया और एक बैंक कर्मचारी से मिलकर यह धोखाधड़ी करता था। उन दिनों नए चेक बुक के लिए शाखा में जाकर आवेदन करना होता था। वह बैंक कर्मचारी खुद किसी ऐसे खातों में आवेदन लगा देता, जो निष्क्रिय होते थे। डाकिया नए चेक बुक को जान बुझ कर सेठ को दे देता था और अपने रिकॉर्ड में सेठ से कोई भी हस्ताक्षर लेकर डिलीवरी बता देता था।

तत्पश्चात हस्ताक्षर का नमूना बैंक कर्मचारी सेठ को बता देता और सेठ नए चेक पर हुबहू संबंधित ग्राहक का हस्ताक्षर कर के चेक कलेक्शन में डलवा देता और भुगतान निकलवा लेता। तीनों शातिर अपराधी पकड़े गए। राजेंद्र भी पकड़ा गया। इस तरह पर्दाफाश हुआ एक अजीबोगरीब धोखाधड़ी का।

लेकिन लक्खू का मन शांत नहीं था। उसे ट्यूशन के काले कारनामे का भी भंडाफोड़ करना था। पूर्णिया के उस इंस्टीट्यूट में वह एक बार फिर गया, लेकिन न श्यामकुंवर उसे मिला, और न ही उसके समय के अन्य ट्यूटर्स। शायद वे जेल में थे या कहीं और चले गए थे। लेकिन उस इंस्टीट्यूट का निदेशक वहीं मिल गया, जो दरअसल इस धोखाधड़ी का किंगपिन (सरगना) और मास्टरमाइंड था, लेकिन वह हर बार साफ बच जाता था सबूत के अभाव में।

प्रतियोगी परीक्षाओं में धोखाधड़ी कराने के तार बीते सालों में उस इंस्टीट्यूट से कई बार जुड़े। कुछ और ट्यूटर भी जेल गए थे। लक्खू ने पुलिस को बताया कि कैसे यह कारोबार निदेशक की सहमति से चलता था और कैसे वह अपना कमीशन ट्यूटर्स से वसूलता था। उसने लिखित गवाही दी। निदेशक के खिलाफ प्रकरण दर्ज हुआ और अंततः प्रशासन ने इंस्टीट्यूट बंद कराने का फैसला ले लिया।

लक्खू के मन में अब शांति थी। वह बैरगाछी वापस आया और मुख्य सड़क पर एक चाय की दुकान खोल दी, "एमएससी चाय वाला" के नाम से।

-- कौशल किशोर

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