ख़यालों के सतह पर ख़यालों के इमारतें बनाना अच्छा लगता है,
कुछ अधूरे कहानियों को ख़यालों में दोहराना अच्छा लगता है।

सबकुछ समझ आ जाए, तो रहस्य के वलवले का क्या होगा?
कुछ राग ज़िंदगी के ,नासमझी में ही गुनगुनाना अच्छा लगता है।

ये धीमी-धीमी-सी बहती बाद-ए-सबा और फ़िज़ाओं में घुलती यादें,
दरख्तों से गिरते लम्हें और आवाज़ लगाता, रुत सुहाना, अच्छा लगता है।

कभी, बस चलते चले जाना, ना सम्त का फ़िक्र, ना मंज़िल का ठिकाना,
खुद के राहें तलाशने में, खुद ही खो जाना अच्छा लगता है।

किताबों में दबी एक तस्वीर मिली है, जिसमें बे-फ़िक्री की खुश्बू लिपटी है,
उस बेफिक्री को खुद में उतार, शफ़क़-सा नर्म मुस्कुराना अच्छा लगता है।

-शिवाय


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